शोध का अर्थ
प्रकृति ने संसार को अनेक चमत्कारों से नवाजा हैं। कुछ चमत्कारों की खोज भी एक लंबे अंतराल के शोध के बाद ही संभव हो सकी थी। यही कारण है कि किसी भी सत्य की खोज और उसकी पुष्टी के लिए शोध का होना अनिवार्य होता है। मानव की जिज्ञासु प्रवृत्ति ने ही शोध प्रक्रिया को जन्म दिया । किसी भी सत्य को निकटता से जानने के लिए शोध एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया होती है। समय- समय पर विभिन्न विषयों की खोज और उनके अध्ययन और निष्कर्षो की विश्वसनीयता और प्रमाणिकता भी शोध की मदद से ही संभव हो पाती है। जैसे जैसे समय बीत रहा हैं वैसे वैसे मानव की समस्या भी विकट होती जा रही है। हर दिन एक नई समस्या से उसे दो चार होना पड़ता है। ऐसे में शोध की महत्ता स्वतः ही पैदा हो जाती है। हालांकि मानव की सोच विविधता वाली होती है और उसकी रूचि, प्रकृति, व्यवहार, स्वभाव और योग्यता भिन्न - भिन्न होती है। इस लिहाज से अनेक जटिलताएं भी पैदा हो जाती है। इस लिहाज से मानवीय व्यवहारों की अनिश्चित प्रकृति के कारण जब हम उसका व्यवस्थित ढंग से अध्ययन कर किसी निष्कर्ष पर आना चाहते हैं तो वहां पर हमें शोध का प्रयोग करना होगा। इस तरह सरल शब्दों में कहें तो सत्य की खोज के लिए व्यवस्थित प्रयत्न करना या प्राप्त ज्ञान की परीक्षा के लिए व्यवस्थित प्रयत्न भी शोध कहलाता है। तथ्यों कर अवलोकन करके कार्य- कारण संबंध ज्ञात करना अनुसंधान की प्रमुख प्रक्रिया है।
शोध का आशय
शोध शब्द अंग्रेजी के रिसर्च का हिन्दी अनुवाद है। यह दो शब्द re और search से मिलकर बना है। re का अर्थ होता है पुनः और search का अर्थ होता है खोज। इस तरह यह दोनों शब्दों का अर्थ होगा पुनः खोज । इसलिए हम इसके अर्थ को स्पष्ट करें तो इसका तात्पर्य होगा पुनः या बार- बार होने वाली खोज । किसी भी विषय या समस्या की प्रमाणिकता को बनाए रखने के लिए बार बार खोज की जाती है।
शोध की परिभाषा
रैडमैन और मोरी ने अपनी किताब “The Romance of Research” में शोध का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है, कि नवीन ज्ञान की प्राप्ति के व्यवस्थित प्रयत्न को हम शोध कहते हैं।
एडवांस्ड लर्नर डिक्शनरी आॅफ करेंट इंग्लिश के अनुसार- किसी भी ज्ञान की शाखा में नवीन तथ्यों की खोज के लिए सावधानीपूर्वक किए गए अन्वेषण या जांच- पड़ताल को शोध की संज्ञा दी जाती है।
स्पार और स्वेन्सन ने शोध को परिभाषित करते हुए अपनी पुस्तक में लिखा है कि कोई भी विद्वतापूर्ण शोध ही सत्य के लिए, तथ्यों के लिए, निश्चितताओं के लिए अन्चेषण है।
वहीं लुण्डबर्ग ने शोध को परिभाषित करते हुए लिखा है, कि अवलोकित सामग्री का संभावित वर्गीकरण, साधारणीकरण एवं सत्यापन करते हुए पर्याप्त कर्म विषयक और व्यवस्थित पद्वति है।
उपरोक्त परिभाषा के आधार पर कहा जा सकता है कि नवीन ज्ञान की खोज की दिशा में दिए गए व्यवस्थित एवं क्रमबद्व प्रयास शोध है। शोध का अंतिम उद्ेदश्य सिद्धांतों का निर्माण करना होता है। मनुष्य के जीवन में आने वाली समस्याओं के निदान में भी शोध ही आगे आता है। शोध विज्ञान और वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित होता है। इसलिए इस पर आधारित ज्ञान भी वस्तुपरक होता है।
शोध के प्रकार
‘शोध का प्रमुख लक्ष्य वैज्ञानिक पद्वति के प्रयोग द्वारा प्रश्नों के उत्तर खोजना है इसका उद्देश्य अध्ययनरत समस्या के अंदर छुपी हुई यर्थाथता का पता लगाना या उस सबकी खोज करना है जिसकी जानकारी समस्या के बारे में नहीं है। वैसे प्रत्येक शोध के अपने विशेष लक्ष्य होते है फिर भी सैल्टिज, जहोदा,सी आर कोठारी आदि ने सामाजिक शोध को निम्नलिखित प्रकारों में विभाजित किया हैं।
1 किसी घटना के बारे में जानकारी प्राप्त करना या इसके बारे में नवीन ज्ञान प्राप्त करना- इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए की जाने वाली शोध को अन्वेषणात्मक अथवा निरूपणात्मक शोध कहते है।
2 किसी व्यक्ति परिस्थिति या समूह की विशेषता का सही चित्रण करने के लिए की जाने वाली शोध को वर्णनात्मक शोध कहते है।
3 किसी वस्तु या घटना के घटित होने की आवृत्ति निर्धारित करना या किसी अन्य वस्तु या घटना के साथ संबंध स्थापित करने के लिए निदानात्मक शोध उपयोग में लाई जाती है।
4 विभिन्न चरो में कार्य कारण संबंधों वाली उपकल्पनाओं का परीक्षण करने के लिए उपकल्पना परीक्षण अनुसंधान या प्रायोगिक शोध उपयोग में लाई जाती है।
शोध की उपरोक्त श्रेणियों के आधार पर सामाजिक शोध को मुख्यतः निम्न रूपों में विभाजित किया जा सकता है।
1 मौलिक या विशुद्व शोध - शोध के इस प्रकार में सामाजिक जीवन या घटना के संबंध में मौलिक सिद्वांतों और नियमों का अनुसंधान किया जाता है । इसका उद्वेश्य नए ज्ञान की प्राप्ति और बढ़ोत्तरी के साथ पुराने ज्ञान की पुनः परीक्षा द्वारा उसका शुद्वीकरण होता है इस प्रकार की खोज में नए तथ्यों और घटनाओं का अध्ययन किया जाता है। मौलिक शोध के अन्र्तगत नए सिद्वांतों और नियमों की खोज नवीन परिस्थितियों और समस्याओं के उत्पन्न होने पर की जाती है। इसका कारण यह है कि इन नवीन सिद्धांतों का वर्तमान परिवर्तित परिस्थितियों के साथ ज्यादा से ज्यादा मेल बैठ जाए और हम उनके संबंध में अपने नवीनतम ज्ञान के सहारे मौजुद परिस्थितियों की चुनौती का सामना अधिक सफलता पूर्वक कर सकें। शोधकर्ता अपने अनुसंधान के द्वारा जो सामाजिक शोध ज्ञान की प्राप्ति परिमार्जन और परिवर्धन को अपना लक्ष्य मानता है उसे मौलिक शोध कहते है।
2 व्यावहारिक शोध- पी वी यंग के अनुसार खोज का एक निश्चित संबंध लोगों की प्राथमिक आवश्यकताओं और कल्याण से होता है। सिद्धांत और व्यवहार आगे चलकर बहुधा एक दूसरे में मिल जाते है इसी मान्यता के आधार पर सामाजिक शोध के दूसरे प्रकार को व्यावहारिक शोध कहा जाता है। इस प्रकार के व्यावहारिक शोध का संबंध सामाजिक जीवन के व्यावहारिक पक्ष से होता है और वह सामाजिक समस्या के संबंध में ही नहीं बल्कि सामाजिक नियोजन, सामाजिक अधिनियम, स्वास्थ्य रक्षा संबंधी नियम,धर्म, शिक्षा, न्यायालय, मनोरंजन आदि विषयों के संबंध में भी अनुसंधान करता है और इनके संबंध में कारण सहित व्याख्या और ज्ञान से लोगो को रूबरू करवाता है। इसका तात्र्पय यह नहीं है कि व्यावहारिक शोध का कोई संबंध समाज सुधार से,सामाजिक बुराईयों के उपचार से, सामाजिक अधिनियमों को बनाने या सामाजिक नियमों को व्यावहारिक रूप में प्रस्तुत करने से होता है। वह स्वंय यह सब कुछ नही करता है। व्यावहारिक शोध का काम केवल व्यावहारिक जीवन से संबंध विषयों तथा समस्याओं के संबंध में सही ज्ञान देना है। व्यावहारिक शोध हमारे जीवन में आने जाने वाली समस्याओं और अन्य घटनाओं पर नियंत्रण प्राप्त करने या उनका अन्य उपचार प्राप्त करने के लिए आवश्यक सिद्धांतों के विषय में हमारी चिंतन प्रक्रिया को उभार सकता हैं । सामान्यतः यह देखा गया है कि आश्र्चयजनक प्रयोगसिद्ध व्यावहारिक खोज की व्याख्या या विश्लेषण करने के दौरान शोधकर्ता ऐसे व्यावहारिक सुधारों को प्रस्तुत करता है जो कि अनेक सामाजिक समस्याओं के उपचार में सहायक साबित होते है।
3 क्रियात्मक शोघ- जब सामाजिक शोध अध्ययन के निष्र्कषो को क्रियात्मक रूप देने की किसी भावी योजना से संबंध होता है तो उसे क्रियात्मक शोध कहा जाता है। गुड्डे तथा हॉट के अनुसार क्रियात्मक शोध उस कार्यक्रम का अंश होता हैं जिसका लक्ष्य उपस्थित अवस्थाओं का परिवर्तित करना होता है। चाहे वो गंदी बस्ती की अवस्था हो या किसी संगठन की प्रभावशिलता हो । इस शोध में निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए।
a. अध्ययन के समय घटना या समस्या के वास्तविक क्रिया पक्ष पर ध्यान - इसका तात्पर्य है कि जिन घटना का अध्ययन शोधकर्ता कर रहा है। उसमें शामिल मानवीय क्रियाओं, कारणों, आधारों और नियमों के प्रति वह अत्यधिक सचेत होता है। अगर वह घरेलू हिंसा का अध्ययन कर रहा है तो वह यह जानने का प्रयास करेगा कि परिवार में पुरूष महिलाओं के प्रति कैसा व्यवहार करते है और उसका कारण और आधार क्या है।
b.समस्या और घटना के संबंध में ज्ञान - शोधकर्ता का विषय से संबंधित घटना के बारे में जानकारी होना चाहिए ऐसा न होने की स्थिति में उस घटना में मौजुद किसी भी क्रियात्मक पक्ष का अनुसंधान करना संभव नही होगा ।
c. सहयोग की प्राप्ति - शोधकर्ता को निरंतर इस बात का प्रयत्न करना होता है कि उसे अपने कार्य में कम से कम विरोध का सामना करना पड़े। क्र्रियात्मक शोध का पहला उद्देश्य विघमान समस्याओं में परिवर्तन लाना होता है । इस प्रयत्न को करते समय संभव है कि समाज के लोगों के स्वार्थ को ठेस लगे। इसलिए शोधकर्ता को इन सब बातों का ध्यान रखना चाहिए ताकि उसे हर संभव मदद मिल सके ।
d. रिपोर्ट को आरंभ में ही अंतिम रूप न देना- क्रियात्मक शोध की रिपार्ट को आरंभ में ही अंतिम रूप में प्रस्तुत नही करना चाहिए। पहले एक अंतरिम रिपोर्ट को प्रस्तुत करना चाहिए जिससे उसके प्रभावित होनो वाले व्यक्तिओं की प्रतिक्रिया को जाना जा सके । उन प्रतिक्रियाओं के आधार पर अंतिम रिपोर्ट में आवश्यक सुधार करने की गुंजाईश हमेशा रहनी चाहिए।
शोध अभिकल्प का महत्व एवं विशेषताएं -
1 इसका संबंध सामाजिक शोधों से होता है। अर्थात सामाजिक शोधों के दौरान शोध कार्य करने के लिए सामाजिक शोधों का निर्माण किया जाता है।
2 यह शोधकर्ता को शोध की एक निश्चित दशा का बोध कराता है। इसकी एक रूपरेखा होती है जिसका निमार्ण शोधकार्य करने के पूर्व किया जाता है। यह एक दिग्दर्शक की तरह होता है।
3 इसके द्वारा सामाजिक घटना का सरलीकरण किया जाता है।
4 यह नियत्रंण का कार्य करती है। यह शोध प्रक्रिया में आगे की परिस्थितियों को नियंत्रित करती है।
5 इस प्रक्रिया में कम खर्चा होता है। यह मानवीय श्रम को कम करके समय और लागत को भी कम करती है।
6 यह बाधा निवारक का काम करती है।
Problem in social research
सामाजिक शोध में समस्या का चयन और उसका प्रतिपादन अथवा पहचान सामाजिक अनुसंधान के सफल संचालन के लिए अत्यंत आवश्यक माना जाता है। ए आइन्सटीन तथा एन इन्फील्ड ने कहा कि समस्या का प्रतिपादन प्रायः इसके समाधान से अधिक आवश्यक हैं। अतः सामाजिक शोध की प्रक्रिया का प्रथम चरण शोध समस्या के चयन तथा उसके प्रतिपादन को माना जाता है।
समस्या का चयन और उसकी परिभाषा- सामाजिक शोध के अन्र्तगत अनेक समस्याओं का समावेश होता है। इस लिहाज से नवीन शोधकर्ता के लिए समस्या की संर्पूण चयन विधि से पूर्णतः परिचित होना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। गुड्डे और स्केट ने अनुभवी वैज्ञानिक की नजर से समस्याओं के छूटने की घटना का उल्लेख अपनी किताब में किया है। उन्होने बताया कि बेल टेलीफोन के अविष्कार के संबंध पढ़कर एक सप्ताह तक सो नहीं सके उन्होने कहा कि यह समस्या उनके समाने एक वर्ष में कई बार आई किंतु वे उसे देखने में असमर्थ रहें।
इस लिहाज से समस्या के चयन के लिए पूरी सर्तकता बरतने की आवश्यकता होती है। यह जरूरी नहीं की शोध के लिए चुना गया विषय पूर्णतः तार्किक हो, समस्या के चयन में शोधकर्ता पर उसका व्यक्तित्व और पर्यावरण दोनों महत्वपूर्ण प्रभाव डालते है। शोधकर्ता समाज से सीधे रूप से जुड़ा होता है। उसके अपने विचार, विश्वास, मूल्य, मनोवृत्तियां ,व्यवहार आदि होेते हैं। शोधकार्य के लिए लगन स्थिरता और तारतम्यता की आवश्यकता होती है। अतः शोध के लिए चुनी गई समस्या आदि शोध कर्ता के व्यक्तित्व संबंधी विशेषताओं के अनुकूल होना अधिक उपयुक्त माना जाता है।
समस्या के चुनाव के दौरान शोधकर्ता के अपने विचार उस पर काफी प्रभाव डालते है। इस लिहाज से ये कहा जा सकता है कि शोध समस्या का चुनाव किसी ना किसी सीमा तक शोध की व्यक्तित्व संबंधित पृष्ठभूमि से प्रभावित होता है। ऐसा शोध जो समाज की नजर में पूर्णरूपेण अनुपयोगी है बेकार माना जाता है। यहां तक कि विशुद्व शोधकर्ता भी समाज कल्याण के उद्देश्यों को अपने ध्यान में रखते हैं। साथ ही समाज के लिए विनाशकारी प्रभाव रखने वाले शोध कार्य को प्रतिबंधित करने का प्रयास करते है।
एक शोधकर्ता को शोध समस्या के चयन से पूर्व स्वयं से प्रश्न पूछने चाहिए जो निम्नानुसार होंगें ।
1 क्या शोध शीर्षक ऐसा है जिस पर कोई कार्य पहले किया जा चुका है। यदि हां तो क्या इस कार्य का कोई लिखित रूप उपलब्ध है। यदि हां तो क्या वह शोधकर्ता की पहुंच में है।
2 क्या शोध-शीर्षक ऐसा है जिसके प्रति समाज द्वारा विरोध प्रकट किया जा सकता है।
3 क्या शोध के परिणामों से शोधकर्ता स्वयं भी आय, यश आदि के रूप में कुछ लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
4 क्या शोध शीर्षक समाज के उपयोगी है। क्या इसके परिणाम शोधकर्ता की व्यक्तिगत अभिरूचियों, इच्छाओं मूल्यों और मान्यताओं के अनुकूल है।
5 क्या शोध शीर्षक प्रायोगिक है अर्थात् इस शीर्षक पर शोध कार्य करने के लिए आवश्यक तथ्य की उपलब्धता संभव हो सकेगी
परिस्थिति विश्लेषण अथवा क्षेत्र निर्धारण -
प्रत्येक शोधार्थी को परिस्थिति विश्लेषण और अपने शोध के क्षेत्र निर्धारण के लिए निम्नलिखित सीमाओं पर भी विचार करना चाहिए।
1 ज्ञान की शाखा विशेष की सीमाएं - ज्ञान की प्रत्येक शाखा का विभाजन एक विशेष ढंग से किया जाता है। इसी लिए शोधकर्ता को जिस विषय में ज्ञान है उसी विषय में शोध का चयन करना चाहिए ।
2 भौगोलिक सीमाएं- शोधकर्ता को बजट और सुविधा के मुताबिक विषय का चुनाव करना चाहिए ताकि शोध के लिए दुर्गम स्थान पर न जाना पड़े।
3 समय सीमा - समाज और शोध के विषय परिवर्तनशील है, इसलिए किसी विषय के चयन के दौरान उसकी समय सीमा को ध्यान रखा जाना चाहिए।
शोधार्थी के समक्ष आने वाली प्रमुख समस्याएं-
1 भारत जैसे विकासशील देश में शोध के लिए संसाधनों की कमी और वैज्ञानिक तौर तरीकों के अभाव में शोधकर्ता को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है । हालात यह है कि बिना प्रशिक्षण और ज्ञान के ही अनेक लोग शोधकार्य में संलग्न होते है। इसके अलावा सही मार्गदर्शन करने वाले अनुभवी लोगों की कमी भी शोधार्थी के सामने एक बड़ी समस्या है। भारत में शोध कार्य करने के लिए अनुकूल माहौल और नियमित प्रशिक्षण का भी अभाव देखने को मिलता है। जिसके चलते शोध प्रविधि एवं विषय के चयन संबंधी समस्या से शोधार्थी को रूबरू होना पड़ता है।
2 शोधार्थी और शासकीय विभागों में परस्पर समन्वय के अभाव के कारण विभागों में जमा दूसरी शोधार्थी तक नहीं पहुंच पाती है और संदर्भित आंकड़ों में कमी हमेशा बनी रहती है। इसके लिए विश्वविद्यालय और शोध संस्थान द्वारा वहां के शोधों की जानकारी वाले कार्यक्रम का आयोजन भी नहीं होता है।
3 कई परिस्थितियों में प्रकाशक पुरानी शोधों की गोपनियता बनाए रखने के लिए प्रकाशित नहीं करता है। इसके अलावा अनेक संस्थानों की कार्यप्रणाली कुछ इस तरह की होती है जिसके चलते वे अपनी जानकारियों को दुरूपयोग होने के डर से सार्वजनिक नहीं करते । ऐसा कोई उपाय इन संस्थानों के द्वारा नहीं किया जाता जिससे वे अपनी जानकारियों को निर्भिकता के साथ सार्वजनिक कर सकें। ये भी एक कारण है। जिसके चलते शोधार्थियों को समस्या का सामना करना पड़ता है।
4 लिखित रूप मे सूची उपलब्ध न होने के कारण एक ही विषय पर कई बार शोध कर लिया जाता हैं । अतः शोध के विषयों की सूची ना होना भी शोधकर्ता के सामने एक बड़ी समस्या है।
5 शोध किस तरह किया जाए इसके लिए अभी तक कोई कानून या आचार संहिता नही बनाए गए है। आपस में दो विश्वविद्यालय और विभिन्न संस्थानों के मध्य सूचनाओं के आदान प्रदान की भी कोई आचार संहिता नही बनाई गई है।,इसके कारण आचार संहिता के बगैर ही शोध को अंजाम देना पड़ता है।
6 भारत मे शोधार्थी को एक और समस्या का सामना करना पड़ता है वह है सहायक सुविधा और कम्प्यूटर के प्रयोग का अभाव स्वयं के सिद्धहस्त न होने के कारण उसे इन सब पर निर्भर रहना पड़ता है उसके कारण समय अधिक लगता है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग इस समस्या को दूर करने के लिए बेहतर कदम उठा सकता है।
7 अनेक शहरों में पुस्तकालय की कमी भी एक बड़ी समस्या है। ज्यादातर शहरों में इनका अभाव है जहां पुस्तकालय उपलब्ध है वहंा भी पुस्तकों और संर्दभ ग्रंथों की कमी का सामना शोधार्थी को करना होता है। इन सब कारणों की वजह से शोधार्थी को ज्यादा समय और उर्जा का प्रयोग आंकड़ों की खोज और एक़ित्रकरण में करनी पड़ती है।
8 यह भी देखने में आता है कि ज्यादातर लायब्रेरी में पुराने नियमों और कानून की जानकारी उपलब्ध नही होती है। इस समस्या से निपटने के लिए सरकारी प्रकाशन को शोध संबंधित दस्तावेज सभी पुस्तकालयों में जल्दी से जल्दी उपलब्ध करवाने चाहिए।
9 शोध के दौरान जरूरत पड़ने पर सरकारी प्रकाशन और अन्य संस्थानों द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट और आंकड़े समय पर उपलब्ध नही करवाए जाते हैं। शोधार्थी को एक और समस्या का सामना करना पड़ता है वह है आंकड़ो से संबंधित प्रकाशित महत्वपूर्ण तथ्यों का न मिल पाना।
10 तथ्यों के एकत्रिकरण के दौरान नए विचारों की कमी भी एक समस्या होती है। इसके अलावा तथ्यों और आंकड़ों के एकत्रिकरण में अपनाई जाने वाली प्रक्रियाओं की कमी भी एक बड़ी समस्या हैअनिल अत्री ........
very good matter.thankyou
ReplyDeletethanx.. sir .. pls tell me literature review in research
ReplyDeletepls tell about literature review in research
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