Sunday, January 2, 2011

अवहट ...

अवहट ...
भाषा सतत परिवर्तनशील होती है / अपभ्रंश के उत्तरकालीन या परवर्ती रूप को
अवहट नाम दिया गया है ..11 वीं से 14 वीं शती के रचनाकरों ने अपनी भाषा को अवहट कहा / अवहट शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग जयोतिरिश्वर ठाकुर ने अपने ' वर्ण रतनाकर ' मै किया / अवहट को अपभ्रंश व पुरानी हिंदी के बीच कि कड़ी माना जाता है ....
काव्य भाषा के रूप में अवधी का उदय .........

अवधी भाषा का आरम्भिक रूप हमें कबीरादी संत्तों कि सधुक्कड़ी भाषा मै मिलता है , जो वराणसी के आसपास जीवनयापन करते थे / तदन्तर मुल्ला दाउद, जायसी आदि प्रेमाख्यानक कवियों ने अपने काव्य मै किया .....विशुद्ध प्रेममार्गी कवियों की श्रेणी में मुख्यत: कुतुबन, मंझन और मलिक मोहम्मद जायसी का नाम आता है। इनके अतिरिक्त भी अनेक सूफ़ी फ़कीरों ने अपनी रचनाओं से लोक में उस प्रेमास्पद के नाम का प्रकाश फैलाया पर जो प्रसिद्धि इन तीनों की रचनाओं क्रमश: मृगावती, मधुमालती और पद्मावत को मिली, वह किसी और को नहीं मिल पाई।
कुतुबन: जौनपुर के बादशाह के आश्रित कवि कुतुबन चिश्ती वंश के शेख बुरहान के शिष्य थे। इन्होंने ९०९ हिज़री (सन १४९५-९६) में मृगावती की रचना की जो कि इस काव्य परंपरा का पहला प्रसिद्ध काव्य है। इस में उन्होंने चंद्रनगर नामक राज्य के राजकुमार और कंचनपुर की राजकुमारी मृगावती की प्रेम-कहानी का वर्णन किया है। कहानी के बीच में स्थान-स्थान पर भावात्मक रहस्यवाद की ओर बड़े सुंदर संकेत हैं। रचना की भाषा पूर्वी हिंदी या अवधी है और पूरी रचना में पाँच चौपाइयों के बाद एक दोहे की पद्धति का अनुसरण किया गया है।
मंझन: इनके जीवन के विषय में कुछ ज्ञात नहीं है। रचना के रूप में भी मधुमालती नामक काव्य की एक खंडित प्रति ही प्राप्त हुई है। परंतु यह खंडित प्रति भी इनके रचना-कौशल को पूर्ण रूप से प्रकट करने में समर्थ है। मधुमालती का काव्य सौष्ठव मृगावती की तुलना में श्रेष्ठ और अधिक भावपूर्ण है। कथानक भी अधिक विस्तृत और पेचीदा है। नायक-नायिका के साथ-साथ इसमें कवि ने उपनायक और उपनायिका का भी विधान किया है और उनके माध्यम से निस्वार्थ प्रेम व बंधुत्व का चित्र प्रस्तुत किया है। पशु-पक्षियों में भी प्रेम की पीर दिखाकर मंझन इस में प्रेम की व्यापकता और सामर्थ्य को प्रस्तुत करने में सफल रहे हैं।
काव्य की भाषा और शैली लगभग मृगावती की ही तरह पर उससे अधिक हृदयग्राही है। विरह और प्रेम की पीर के वर्णन के माध्यम से उस परोक्ष के विरह की ओर संकेत का एक सुंदर उदाहरण दृष्टव्य है:

बिरह अवधि अवगाह अपारा। कोटि माँहि एक परै त पारा॥
बिरह कि जगत अँविरथा जाही। बिरह रूप यह सृष्टि सबाही॥
नैन बिरह अंजन जिन सारा। बिरह रूप दरपन संसारा॥
कोटि माँहि बिरला जग कोई। जाहि सरीर बिरह दुख होई॥

रतन कि सागर सागरहिं, गजमोती गज कोइ।
चंदन कि बन-बन ऊपजै, बिरह कि तन-तन होइ?

सूफी कवियों के आश्रय मै अवधी भाषा काफी फली फूली ....उसके बाद कुछ भक्त कवियों ने भी अवधी को आगे बढाया....... तुलसी जेसे कवियों ने आगे बडाया..उसके बाद रीतिकाल के आचार्य केशवदास ने आगे बदाया.... आधुनिककाल के भारतेंदु आदि ने आगे बढाया ................

अनील अत्री anilattri.reporter@gmail.com

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