Saturday, January 1, 2011

अनील अत्री....हिन्दी साहित्य का इतिहास ....एक दर्शन ...

हिंदी उद्भव व विकास ....
1000 ई० पू० वेदिक संस्कृत बोली जाती थी ....( आज से करीब तीन हजार साल पहले ..)
1000 ई० पू० से 500 ई० पू० तक भारत मैं लौकिक संस्कृत बोली गई ......
500 ई० पू० से ईसा के प्रारम्भ तक पाली बोली गई ......
इसवी के प्रारम्भ से 500 ई० तक प्राकृत भाषा बोली गई .....
500 ई० से 1000 ई० तक अपभ्रंस बोली गई ...और अपभ्रंस धीरे धीरे खड़ी बोली से होती हुई हिंदी मै बदल गई ......
इस प्रकार सही हिंदी हमारे सामने 1050 ई० के आसपास आई .....................
इस तरह हमारी हिंदी आज तक पद्य व गद्य कि नई नई विधाओं से आ रही है ..................................
अनील अत्री anilattri.reporter@gmail.com




Anil Attri

हिन्दी साहित्य का इतिहास ....एक दर्शन ...


अपभ्रंश से कई भाषाएँ तथा उपभाषाएँ आई ---
अपभ्रंश भाषाएँ तथा उपभाषाएँ
शौरसेनी पश्चिमी हिंदी , राजस्थानी , गुजराती और पहाड़ी
पैशाची पंजाबी , लहेंदा पैशाची से ..
ब्राचड़ ब्राचड़ से निकली सिन्धी ..
महाराष्ट्री मराठी ..
मागधी बिहारी , उडिया बंगला , असमिया ..
अर्ध मागधी पूर्वी हिंदी ...........


व्यादी और महाभाष्य के रचियता पतंजलि ने संस्कृत के मानक शब्दों से इत्तर संस्कारच्युत , भ्रष्ट और अशुद्ध शब्दों को अपभ्रंश नाम दिया ....हेमचंदर ने इसको ग्राम भाषा कहा ....
आचार्यों ने अपभ्रंश के कुल तीन भेद बताये है ...1 नागर ( गुजरात कि बोली )
2 उपनगर ( राजस्थान कि बोली )
3 ब्राचड़ ( सिंध कि बोली )
अपभ्रंश साहित्य की प्राप्त रचनाओं का अधिकांश जैन काव्य है अर्थात् रचनाकार जैन थे और प्रबंध तथा मुक्तक सभी काव्यों की वस्तु जैन दर्शन तथा पुराणों से प्रेरित है। सबसे प्राचीन और श्रेष्ठ कवि स्वयंभू (नवीं शती) हैं जिन्होंने राम की कथा को लेकर 'पउम-चरिउ' तथा 'महाभारत' की रचना की है। दूसरे महाकवि पुष्पदंत (दसवीं शती) हैं जिन्होंने जैन परंपरा के त्रिषष्ठि शलाकापुरुषों का चरित 'महापुराण' नामक विशाल काव्य में चित्रित किया है। इसमें राम और कृष्ण की भी कथा सम्मिलित है। इसके अतिरिक्त पुष्पदंत ने 'णायकुमारचरिउ' और 'जसहरचरिउ' जैसे छोटे-छोटे दो चरितकाव्यों की भी रचना की है।
जैनों के अतिरिक्त बौद्ध सिद्धों ने भी अपभ्रंश में रचना की है जिनमें सरहपा, कन्हपा आदि के दोहाकोश महत्वपूर्ण हैं। अपभ्रंश गद्य के भी नमूने मिलते हैं। गद्य के टुकड़े उद्योतन सूरि (सातवीं शती) की 'कुवलयमाल कहा' में यत्रतत्र बिखरे हुए हैं। नवीन खोजों से जो सामग्री सामने आ रही है, उससे पता चलता है कि अपभ्रंश का साहित्य अत्यंत समृद्ध है। डेढ़ सौ के आसपास अपभ्रंश ग्रंथ प्राप्त हो चुके हैं जिनमें से लगभग पचास प्रकाशित हैं।जैनों के अतिरिक्त बौद्ध सिद्धों ने भी अपभ्रंश में रचना की है जिनमें सरहपा, कन्हपा आदि के दोहाकोश महत्वपूर्ण हैं। अपभ्रंश गद्य के भी नमूने मिलते हैं। गद्य के टुकड़े उद्योतन सूरि (सातवीं शती) की 'कुवलयमाल कहा' में यत्रतत्र बिखरे हुए हैं। नवीन खोजों से जो सामग्री सामने आ रही है, उससे पता चलता है कि अपभ्रंश का साहित्य अत्यंत समृद्ध है। डेढ़ सौ के आसपास अपभ्रंश ग्रंथ प्राप्त हो चुके हैं जिनमें से लगभग पचास प्रकाशित हैं। जैनों के अतिरिक्त बौद्ध सिद्धों ने भी अपभ्रंश में रचना की है जिनमें सरहपा, कन्हपा आदि के दोहाकोश महत्वपूर्ण हैं। अपभ्रंश गद्य के भी नमूने मिलते हैं। गद्य के टुकड़े उद्योतन सूरि (सातवीं शती) की 'कुवलयमाल कहा' में यत्रतत्र बिखरे हुए हैं। नवीन खोजों से जो सामग्री सामने आ रही है, उससे पता चलता है कि अपभ्रंश का साहित्य अत्यंत समृद्ध है। डेढ़ सौ के आसपास अपभ्रंश ग्रंथ प्राप्त हो चुके हैं जिनमें से लगभग पचास प्रकाशित हैं।
कालिदास के नाटकों मै कुछ पात्रों के कथन , सिद्धों के चर्यापदों, शिलालेखों आदि मै अपभ्रंश का वर्णन है ...............
अनील अत्री anilattri.reporter@gmail.com

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