Sunday, November 29, 2009

उनकी जाति के लोग बनारस के आसपास मरे हुए मवेशियों को ढोने का काम करते थे।)

चोदह सौ तैंतीस की, माघ सुदी पंदरास ।
दुखियों के कल्याण हित, प्रगटे स्त्री रविदास ।।
- रविदास दर्शन पृष्ठ 72

पंद्रह सै चउरासी, भई चितौर मंह भीर ।
जर जर देह कंचन भई, रवि रवि मिल्यौ सरीर।।
- पृथ्वीसिंह रविदास दर्शन पृष्ठ 72

नागर जनां मेरी जाति बिखिआत चमारं ।
मेरी जाति कुटबांढला ढोर ढोवंता, नितहि बानारसी आसपासा ।
- आदिग्रन्थ,पृष्ठ 1293, वाणी 51
(सन्त रैदास जी का जन्म चमार जाति की कुटबांढला नामक एक शाखा में हुआ था और उनकी जाति के लोग बनारस के आसपास मरे हुए मवेशियों को ढोने का काम करते थे।)

काहे रे वन खोजन जाहि,
सर्व निवासी सर्व अलेपा तोरे संग समाही,
पुहुप मध्य ज्यों बास बसत है मुकुर मांहि छांहि
ऐसे ही बसे रहै निरंतर घट ही खोजे भाई ।
भन नानक बिन आपा चीन्है मिटै न भ्रम की काई ।
नानक जी

अनिल कुमार अत्री...

1 comment:

  1. इस साहित्य को जानना अच्छा लगा .. रविदास जी समय की एक आवश्यक मांग थे ।

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